को विरहिणी को दुःख जाणै हो ।।टेक।।
मीराँ के पति आप रमैया, दूजा नहिं कोई छाणै हो।।
जा घट बिरहा सोई लख है, कै कोई हरि जन मानै हो।
रोगी अन्तर वैद बसत है, वैद ही ओखद जाणै हो।
विरह कद उरि अन्दर माँहि, हरि बिन सुख कानै हो।
दुग्धा आरत फिरै दुखारि, सुरत बसी सुत मानै हो।
चात्ग स्वाँति बूंद मन माँहि, पिव-पिव उकातणै हो।
सब जग कूडो कंटक दुनिया, दरध न कोई पिछाणै हो।
मीराँ के पति आप रमैया, दूजा नहिं कोई छाणै हो।।
शब्दार्थ- घट = ह्दय। कैया। हरिजन = हरि-भक्ति। वैद = वैद्य, यहां कृष्ण से तात्पर्य है। औखद = औषधि। करद = क्टार। उर अन्तर आँहि = ह्दय में। दुग्ध = दग्धा पीड़िता। आरत = आरत, दुःख। चातग = चातक। उकलाणै = व्याकुल होना। दरध = दरद, पीड़ा। छाण = रक्षा करना।
..विरहिणी का दुःख कौन जान सकता है? विरहिणी का दुःख यदि कोई जान सकता है तो वही , जिसके ह्रदय में विरह बसा हो, विरह का संचार हो या कोई भगवद्भक्त (हरि -जन) ही इसको समझ सकता है।
....मुझ रोगी के ह्रदय में ही मेरा वैद्य (मेरा प्रियतम कृष्ण) बसा हुआ है और वही वैद्य मेरे रोग की औषधि जानता है।
....मैं विराहग्नि में दग्ध होकर इधर-उधर दुखी होकर भटक रही हूँ। जिसकी छवि मेरे मन में बसी हुई है, उसी में मेरा मन सुख मानता है और कहीं नहीं।
.... जैसे चातक का मन स्वाति नक्षत्र की बूँद में बसा होता है और वह पिया पिया कहकर व्याकुल होता रहता है ठीक उसी तरह मेरा मन भी प्रियतम कृष्ण में बसा हुआ है।
...मीरां कृष्ण के बिना सारे संसार को कूड़ा यानी निस्सार और कांटे के समान बताती हैं क्योंकि यह संसार किसी का दर्द नहीं पहचानता या कहें कि पहचानना नहीं चाहता।
...मेरे पति स्वयं कृष्ण हैं दूसरा कोई नहीं। अर्थ यह भी है कि पति-प्रियतम वह है जिसे सारा संसार जानता है कोई ऐसा नहीं जो चुपके चुपके हो, गुप्त हो।
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